जब अक़ीदा सही ना हो तो नफ़्स, गुमराही का नक़ाब ओढ़कर गुनाह करवाता है और जब अक़ीदा सही हो तो फ़िर यही नफ़्स, इंसान की आँखों में आँखें डालकर गुनाह करवाता है। बेशक इंसान घाटे में है सिवाए उसके जिसपर अल्लाह रहम करे।
दिन हफ्तों में, हफ़्ते महीनों में,महीने बरसों में तब्दील होते चले गए-- हम बस दुनिया के बेकार झमेलों में ख़ुद को खोते चले गए-- एक लंबी उम्र थी लेकिन रेत की तरह पल में हाथों से फिसल गई-- अज़ीज़ रोते हुए आए थे दुनिया में ,बस रोते चले गए--अज़ीज़ देहल्वी