सूफ़ीनामा
ह़ज़रत निज़ामुद्दीन औलियाرح
तेरी अता करम का ये एह़सान इलाही,
तुने दिया है हिंद को मह़बूब इलाही!
तेरी नज़र में इतना मह़बूब हुआ निज़ाम,
कि निज़ाम को मिला लक़ब मह़बूब इलाही!
क्या ख़ूब बनाया है ये चमन तूने इलाही,
अजमेर में ख़्वाजा है, देहली में मह़बूब इलाही!
क्या शान ए ख़्वाजा है, क्या शान ए निज़ामी,
तख़्तनशीं देहली की सल्तनत पर मह़बूब इलाही!
हीरे जवाहरात के बदले निज़ाम की जूती ख़रीद ली,
आस्तां पे ख़ानक़ाह पे तेरे ख़ुसरौ ऐ मह़बूब इलाही!
ख़ुसरौ कहिन हम निज़ाम के बलि बलि जांहीं,
ख़ुसरौ के सिराहने हैं आज भी मह़बूब इलाही!
ख़ुसरौ की तरह आक़िब मैं बलि बलि जाऊँ,
मुझे भी है मह़बूब... मेरा मह़बूब इलाही!
BAZM-E-AQIB (Sufism)
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