मेरे विचारों और मेरे व्यवहार में अक्सर द्वंद्व युद्ध चलता रहता है
मेरे विचार जितने स्वछंद होते जा रहे है
उतना ही मेरा व्यवहार संकुचित होता चला जा रहा है
मेरे विचार बहते पानी की तरह है जो बाधाओं से नहीं डरते
और समय के साथ साथ हर परिवर्तन को स्वीकार करते है
मेरा व्यवहार खोखली मर्यादाओं, बेबुनियाद नियमों में धसा सा रह गया है
उसे हजारों साल पुरानी परंपराओं का निर्वाह करना पड़ता है
डर ये है कि अगर
पालन नहीं किया तो धरती माता अपना सीना चीर देगी
और करोड़ों महानुभाव धरती में समा सकते है
और शायद प्राकृतिक व्यवस्थाएं भी उथल- पुथल हो जाए
जानती भी हूं
आपातकालीन परिस्थितियों में मेरा व्यवहार ही काम में आना है
फिर भी ना जाने क्यों लाख कोशिशों के बावजूद
मेरे विचारो और मेरे व्यवहार में तालमेल नहीं बन पा रहा है
विचार पूरे स्वाभिमानी है, और स्वामीभक्त भी है
अगर अंतरात्मा का आदेश मिले तो व्यवहार से मित्रता कर ले
और व्यवहार तो बेचारा सदियों से गुलाम रहा है
लड़े भी तो किससे?
उसे उसकी हदें समझाने वाले भी तो अपने है
जितना लड़ेगा उतना खुद को घायल करता जाएगा।
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