जब वो देख नहीं पाते थे
रोज़ थोड़ा सा मर जाते थे
और घंटों इंतजार करते
किसी की आहट का
किसी की चाहत का ॥
तब उनकी हमदर्द बनीं
वो उनकी पुरानी ऐनक
उनके हर दर्द को साथ बांट जाती
उनके हर आंसू को खुद में छुपाती॥
रोज़ नई शरारतों से बाज नहीं आना
चुपके से उनके कान से फिसल जाना
याद आता है उनका गुस्सा हो जाना
और चुपके से ऐनक में धागा लगाना ॥
जब हर नूर बेनूर सा लगा
जब हर अपना अपना ना लगा
तब उनकी हमदर्द बनीं
वो दादा की पुरानी ऐनक ॥
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