मर जाओ उस दहलीज़ पर
जिस पर बैठने वाले
पचहत्तर सालों से
खून के धब्बे
तमगे की तरह पहनते आ रहे हैं
अधकचरे तर्कों का पुलिंदा
या सरकारी दफ़्तर का बंदा,
याचना का गला पकड़ लेता है
याचक की विवशता जकड़ लेता है
जहाँ धूल उड़ती ही हो इस मकसद,
कि ढँक जाये बड़े-बड़ों की बरकत
न इरादों की हरकत,
न हरकतों का जमघट
न्याय तो कोई तौलता नहीं,
भीतर भी कुछ खौलता नहीं
यह रोग है,
भयंकर
जब सब की नसों में
खून की कमी हो जाती है।
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