ख़ुदग़र्ज़ बहुत हैं ज़माने में, तू दरिया सा बहता जा
रुदन छोड़ मनमस्त हो कल कल स्वर में कहता जा
पत्थर से ना टकराता तो आवाज़ अपनी पाता क्या?
ये कंकड़ तुझे क्या रोकेंगे तू उनको भी अपनाता जा
कभी प्रलय का साथ ना देना, जो जैसा है सो रहने दे
उस वारिद का साथ पाकर तू खेतों को हर्षाता जा
जो भला है उसकी भी और जो बुरा है उसकी भी
समभाव से समन्वय लौकिक तू क्षुधा सबकी बुझाता जा
जो बस सबसे लेना जाने कृतज्ञता से विमुख होकर
तू सागर में समर्पित होकर अध्यर्पण सिखाता जा
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