खूँटियों पर टँगी, बेज़ुबाँ क़मीज़ हूँ
क्या करूँ मैं मेरे, नसीब का मरीज़ हूँ
मालिकों के अजब, मिज़ाज को ताकता
नापसंद तो कभी, मैं दिल अज़ीज़ हूँ
अदब-ओ-आदाब के, वो ज़माने लद गए
तह तले तौहीन के, कर रखी तमीज़ हूँ
जान है जिसमें भी, जाने कब फ़रेब दे
बेवफ़ा आदमी, बावफ़ा मैं चीज़ हूँ
धूल खाई धूप में, धुल गया मैं धूप में
जिस भी जिस्म पर चढ़ूँ, उसका मैं हफ़ीज़ हूँ
रहता है कहाँ कोई, ताउम्र अपना बने
तारीख़ों तारीफ़ों, का महज़ कनीज़ हूँ
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