डर का आलम गर कभी ज्ञात करना हो तो,
कभी ढ़ूँढ़ना उस मन को
जिसने रास्ते पर चलते मानव रूपी भेड़िए को अपने पीछे पड़ते देखा हैं।
बेबसी का आलम गर कभी जानना हो तो,
कभी ढ़ूँढ़ना उन आँखों को
जिसने मौन धारित कर अश्रू की धारा को ज़मीं पे पड़े-पड़े बहते देखा है।
दर्द का आलम गर कभी मालूम करना हो तो,
कभी ढ़ूँढ़ना उस क्षित-विक्षित चिथड़े में पड़े देह को
जिसने लाख नाकाम कोशिशों के बाद भी एक-एक रेशें को अपने तन से दूर होते देखा हैं।
तिस्कार का आलम गर कभी पता करना हो तो,
कभी ढ़ूँढ़ना उस बेगुनाह को
जिसने किसी और के गुनाहों के सजा के रूप में खुद को समाज द्वारा अनगिनत तंज कसते देखा हैं।
भयावह मौत के मंजर के आलम से गर कभी रूखसत करना हो तो,
कभी ढ़ूँढ़ना उस बिना स्वासों के पड़े शरीर को
जिसने अपने कतरा-कतरा जान को दरिंदगी के हद तक टूटते देखा हैं।
बसर हारी इंसानियत के आलम से गर कभी अवगत होना हो तो,
कभी ढ़ूँढ़ना भीड़ में खड़ी उन मूकदर्शक बनी नाम मात्र इंसानों को
जिसने खुद को शर्म की जंजीरों में बांध इस नृशंसता को यूँहीं होते देखा हैं।।
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