सोचती हूँ जब परम्परा के विषय में, लगाती हूँ मैं इसका हिसाब।
तौलती हूँ जब इसके मायने, सहलाती हूँ तब मैं इसके ख़्वाब।।
है ये बुलंद, आशियाना बनाने की हिम्मत रखने वाला।
इसका दीदार ही है घर का रखवाला।।
चलती है हस्ती इसके मुकम्मल होने से।
वीरान है दुनिया इससे वंचित रहने से।।
बनी परम्परा गृहस्थ ख़ुशी के लिए, रखा सराखों पर सभी ने इसे।
खोना-पाना और सब काम, बिगड़े-सुधरे अब इसके हाथ।।
रोना-गाना और चिल्लाना, हो गई है ये पुरानी बात।
मुश्किल, प्रेम, लड़ाई और झगड़े, किए हैं सबने इसे बदनाम।।
सुनो-सुनो भई बात पते की, ख़ुशहाली सर्वोत्तम है।
इसके आगे-पीछे ही, चलना इस परम्परा को है।।
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