इंसान चाहे कितनी भी कोशिश कर ले,
प्रकृति की कारीगरी की बराबरी नहीं कर सकता।
प्रकृति में एक शुकून है,एक ठहराव है,
कृत्रिम जगत उतना ही खोखला और नीरस है।
वादियों, पहाड़ों, को देख मन प्रसन्न होता है।
और ऊॅंची इमारतों को देख माथे पर बल पड़ जाते है।
प्रकृति देना जानती है, और जब लेती है,
तब कुछ नया श्रृजन करती है, रखती कुछ नहीं।
कृत्रिम जगत लेना जानती है, और जब देती है,
तब बदले में आजादी ले लेती है, बचता कुछ नहीं।
प्रकृति में मुक्ति के,मोक्ष के मार्ग छुपे हैं,
कृत्रिम जगत माया है, छल-कपट,भटकाव का मार्ग।
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