ना सलीक़ा ,ना आदाब, ना तहज़ीब का बाज़ार रखती हूँ,
दुनियावालों, मैं अपनी तल्खियत के दीवाने हज़ार रखती हूँ
सिलसिला धूप,पानी,नमी का रिश्ते में बरक़रार रखती हूँ,
बाग़बान हूँ, तभी अपना आँगन, मैं भी गुलज़ार रखती हूँ
चाहे जितना भी दौड़ा लो, पाँव सलामत रखे है मेरे ,
ख़ारों के कबीलों में, गुलों की एक मज़ार रखती हूँ
जा जाकर शिद्दत से तड़पा ले ,ए ज़िंदगी तू भी ,
तू जानती नहीं, मैं मौत का इन्तेज़ार रखती हूँ
डरती हूँ शोहरत और रुतबे से, कि कहीं बौरां ना जाऊँ,
दुनियावालों ,तभी कितने ही बुत साथ में बेज़ार रखती हूँ
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