QUOTES ON #SARIKAZAPRILPOEM

#sarikazaprilpoem quotes

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27 APR 2017 AT 8:14

कहते हैं करार उन्हें है,
पर बेकरार से दिखते हैं।
देख कर मेरी आंखे भीगी ,
कुछ बेज़ार से लगते हैं।
है कोई नहीं मेरा उनके सिवा
जाने क्यों स्वीकार नहीं करते।

अंदाज उन्हें है प्यार का मेरे,
फिर क्यूं इम्तहान सा लेते हैं
हर एक खुशी देकर जैसे
कोई अहसान सा कर देते हैं
प्यार उन्हें भी हमसे है
जाने क्यों स्वीकार नहीं करते।

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30 APR 2017 AT 10:57


किसी को मंज़िल तक पहुंचायें
किसी के राह में बिखर गये,
कहीं-कहीं पर धूमिल-धूमिल
कहीं रुपहले होते हैं।

ख्वाब हैं आखिर टूट जायं तो,
नये ख्वाब तुम बुन लेना;
माला गर टूट जाय तो
मोती नये पिरोते हैं।

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29 APR 2017 AT 5:26

कुछ गीत बन रहे हैं, मेरे मन की उलझनों में।
कुछ साज़ बज रहे हैं, मेरे मन की सरगमों मे॥

कुछ है जो कहा नहीं जाता, अपनी ही ज़ुबां से,
कुछ बात छिपी हुई है, मेरे मन की चिलमनों में।

अनन्त से क्षिति तक, छाई है एक खुमारी,
मय सी बरस रही है, मेघों की गरजनों में।

यामिनी बन गई है, एक अनकही सी कहानी,
ऊषा खो गई है, सन्ध्या की धङकनों में।

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6 APR 2017 AT 8:05

मिल गयी है चार दीवारें
और एक छत,
अब उसे घर बनाना है;
तिनका-तिनका चुन कर के
एक घोंसला बनाना है।
छोड़ना है उस शहर को
जहाँ बिताये थे कई साल
जो साथी था सुख दुःख का,
भर आती है आँख बार-बार
जब भी आता है ये ख़याल।
रीत भी तो यही है ज़िंदगी की
कभी कुछ खोना तो कभी कुछ पाना
सब कुछ भुला कर बस
आगे-आगे बढ़ते जाना।

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11 APR 2017 AT 7:09

ज़िंदगी से शिकायत हो
जब कभी
चंद घड़ियाँ बिता लेना
हॉस्पिटल के वेटिंग रूम में,
हो जायेंगे अपने ग़म छोटे
और नज़र आयेंगे
हर तरफ़ ग़म खड़े।
वहील चेयर पर बैठी
कुछ चोटें,
स्ट्रेचर पर लेटे
कुछ दर्द
फ़ार्मेसी की लाइन में लगे
दवाइयों के पर्चे,

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26 APR 2017 AT 8:12

कभी सोंचा है तुमने
तुम्हारी हर राह जो
मुझ तक न आती
तो आख़िर कहाँ जाती?
तुम्हारे बहकते क़दम जो
मुझ तक न आते
तो किस राह जाते?
जो मैं न होती तुम्हारे जीवन में
तो किस पर लुटाते यूँ
अपना पागलपन सा प्यार,
किस के लिये हर घड़ी तड़पते
किस को यूँ चिढ़ाते;
क्या सिर्फ़ इसलिए हो तुम मेरे
क्योंकि हूँ मैं तुम्हारी?

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28 APR 2017 AT 7:30

तेरे रंग की स्याही
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ढूँढ रही हूँ कबसे
एक स्याही ऐसी
जिसमें लिख सकूँ तुझको
तुझे नज़्मों में पिरोना है
अपने अल्फ़ाज़ों में सजाना है
कोई रंग नहीं मिलता तेरे रंग से
तो कैसे फिर लिखूँ तुझे;
ओ जग के रंगरेज!
तू ही दे दे
एक ऐसी स्याही मुझे
कि लिख सकूँ तुझे
एक इबारत में।
एक ऐसी रूहानी स्याही
जो क़ाबिल हो तेरे,
मिलती हो तेरे रंग से।

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23 APR 2017 AT 11:42

कभी तो आया करो यूँ फ़ुरसत से,
ज्यूँ हफ़्ते में एक इतवार आता है,

रोज़ जाने आने की जल्दी में वो इतवारी लुत्फ़ कहाँ!

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31 MAR 2017 AT 8:07

रोज़ रात
मेरे ख़्वाबों की ज़मीन पर
एक नज़्म उगती है
मैं उसके पकने का
इंतज़ार करती हूँ
सींचती हूँ उसे कि
वो पके तो उसे काट लूँ
और बिछा दूँ फिर उसे
एक साफ़ शफ़्फ़ाक
काग़ज़ पे
सज़ा दूँ उसे
चुने हुये हरफ़ो के मोतियों से;
पर पता नहीं क्या होता है
कि ख़्वाब टूट जाता है
और अधपकी सी नज़्म
नींद खुलते ही
कहीं गुम हो जाती है...

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20 APR 2017 AT 10:35

मेरी गुड़िया
इतनी जल्दी तू
क्यों बड़ी हो रही है,
तेरी नन्ही अठखेलियाँ
मेरे हाँथों से
फिसल रहीं है;
अभी कल ही तो तू
मेरी बाहों में आयी थी,
फिर घुटनों चलती हुयी
लड़खड़ा कर खड़ी हुयी थी।
और आज तू
जैसे हवाओं में उड़ रही है।
रखना सम्भाल के क़दम
इस बड़ी सी दुनिया में,
क्या पता है तुझे?
मेरी तो दुनिया
बस तू ही है।

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