"कोई गिरता हुआ परवाना है, जो यथार्थ का दीवाना है"
मैं शीश झुकाने आया था, मुझे शीश मिटा कर जाना है।
कुछ रक्तों के मादकताओं को फिर से नया बनाना है।
ना द्वेष किसी के मन का था, ना क्लेश कोई विरक्ति का
मैं सरल हृदय अपने धुन में, मुझे खुद में ही गुनगुनाना है।
तलवारें चढ़ रही जीवित के शव, उठा मौत का पैगाम है।
जनहित के लिये किये दंगों का मुझको रंग दिखाना है।
ना मीत मेरा मुझको भाता था, ना कोई प्रीत लगाई थी मैंने
मुझे चूर-चूर होकर भी अब खुद को जिन्दा लाश बताना है।
वंचित उर व मन क्रूर है, विलुप्त काया एवं अवशेष छाया;
मेरे अश्रु दोषों के नींवों का जड़ मुझको गीत सुनाना है।
मैं था एक जख़्म सहमा हुआ और पतवार रहा किश्ती का।
मुझे अपने स्वर-मझधार में बस कचरे संग बह जाना है।
कहीं धूप है, कहीं छाँव है, कट्टरता के साथ चल रही नाव है।
कोई डूब चुका गहराई में, मुझे वो दिन का याद दिलाना है।
त्वरित राग, जग जाग, तेज गूँजती हुंकार, ओम एक त्राण
मुझे भारत के श्मशानों में अब वीरता का दीया जलाना है।
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