ना जाने कबसे हम इन कांटो भरे सफर में हैं
मंज़िल के करीब आकर, हम अब भी अधर में हैं
हर मुश्किल को मुसाफ़िर, हंस के पार करता है
बड़े गहरे तलुक्कात हैं मुश्किलों से, हम इनकी नज़र में हैं
बहुत मेहनत से बनाया था, जो गिर गया मकां मेरा
कमाल ये है मेरा कि हम अब भी सबर में हैं
जिसकी छांव के नीचे, था पड़ाव मुसाफ़िर का
सुना है सांप लिपटे हुए, अब उस शज़र में हैं
बहुत घिनौना है, वो जो चेहरा है सियासत का
उन्हें क्या पता "निहार", जो अरसों से कैद घर में हैं
सियासतदां से हमने जो कुछ पूछ लिये सवाल
इतना हंगामा बरपा है कि हम मशहूर पूरे शहर में हैं
-