क्या कहूँ मैं कि हो तुम
बिल्कुल चाँद के काबिल
पर क्यूँ डरती हो तुम,
उसके दाग़ में छिप ना जाओ कंही,
सुनो ज़रा..
हो तुम अनन्त सी फ़ैली गहरी समुंदर सी,
जो तुममें कुछ ढूंढने निकला
खो गया खुद ही कंही,
तो बताओ क्यूँ डरती हो तुम,
खुद के लहरों से ही।
मानो मेरी,अपने पंख पसार कर,
सैर करोगी नीले गगन की जिस दिन,
आसमां के बेताज़ बादशाह पंछी भी,
धन्य हो जाएंगे उस दिन।
पर बोलो क्यूँ डरती हो तुम,
काले बादलों में घिर ना जाओ कंही,
जानती हूं, जीना चाहती हो औरों के लिए
तुम हर वक़्त ही ,
पर कैसे सोचा तुमने
तोड़ कर उनका भरोसा
बिखरे ना दो तुम ही कंही।
देखा है मैंने,हो दया, कर्तव्य, समपर्ण की सुंदर मूरत जैसी,
तो कहो क्यूँ चुप चाप रहते हो तुम,
मिला नहीं क्या इस मतलबी दुनियां में
तुम्हारा अस्तित्व कंही ?
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