मैंने चूड़ियाँ क्यों नहीं लाई, नाराज़ थी वो इस बात से,होना भी था उसने सौ दफे मुझे याद दिलाई थी घर पहुँचते कहती है कहाँ है चूड़ियाँ ???
मैं कुछ नहीं कह सका सिवा आगे बढ़ने के, तुम्हें फिक्र नहीं है ना मेरी,तुम कुछ नहीं समझते हो ना मुझे, तुम सुनते क्यों नहीं मेरी,चूड़ियाँ क्यों नहीं लाए मैंने कोई सोने के कंगन तो नहीं मांगे थे ना बस काँच की चूड़ियाँ ही उसने एक सांस में सब कह दिया ।
कैसे समझाता उसे कि सब सुनायी देता है सब सुना याद है तभी याद है ना मुझे मेरी माँ की टूटी चूड़ियों की आवाज सूनी उस कलाई की चींख...
कभी हर दिन बदलते अलग अलग रंगों की चूड़ियों से घर की साज़ बजती थी, मेरे घर की पूजा और आरती की आवाज, मेरे घर के खुशियों की वजह वो आवाज होती थी एक दिन के उस टूटे चूड़ियों की आवाज से मुझे चूड़ियों की खनक से डर लगने लगा है, मैं चूड़ियाँ नहीं खरीद सकता चूड़ियों से भरी कलाई मुझे मेरी माँ की उजड़ी दास्तान याद दिलाने लगती है, माँ जब बहोत खुश होकर मेरे सर को सहलाती है तो छन्न से ना बजने वाली उसकी कलाई मेरे खुशियों को मातम बना देती है
मैं चूड़ियाँ नहीं ला सकता, चूड़ियों की आवाज मुझे अब वीरान किसी हवेली की डरावनी आवाज सी लगती है।
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