‘तुम क्या ढूँढते हो, वो आख़िर चाहिए क्यूँ?
ये जो पास है, क्या वो काफ़ी नहीं?
ग़र जो काफ़ी नहीं, तो कल इसकी तलाश क्यूँ थी?
उन पथरीले रास्तों से यहाँ पहुँचने की आस क्यूँ थी?
तुम लड़े, रोए, चीख़े इसके लिए,
उस सर्द बारिश में भीगे इसके लिए|
शायद तुम्हें वो अब क़ीमती नहीं लगता,
कुछ बेरुख़ी दिखती है, मैं लफ़्ज़ों में समझा नहीं सकता|
पर चलो ठीक है, उस हीरे का यही दस्तूर है,
जब तक चमक है, आख़िर तब तक ही ग़ुरूर है |
पर सवाल तो वो आज भी वाजिब है,
अरे भई वो हीरा तो है, और ऊपर वहाँ क़ाबिज़ है|
फिर तुम क्या ढूँढते हो, वो आख़िर चाहिए क्यूँ?
ये जो पास है, क्या वो काफ़ी नहीं?’
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