मैं छोटी सी गुड़िया थी,
करती थी दिन भर नादानी।
सो जाती मां के आंचल में,
दादी से सुनती थी कहानी।।
सब हंसते, खुश होते थे,
कहते मुझको गुड़िया रानी।
ना रूकती, ना ही थकती थी,
जी भर कर करती मनमानी।।
फिर बचपन में एक ऐसा दिन आया,
जिस दिन मेरी शादी थी।
कटु सत्य से मैं अवगत ना थी,
यह मेरे जीवन की बर्बादी थी।।
जाने कितने सपने टूट गए,
मां बाप सभी अनजान हुए।
गर बेटी घर का गहना होती हैं,
फिर क्यों भेजा ससुराल मुझे।।
मां, मैं तेरा ही तो बचपन थी,
फिर क्यों गलती दोहराई वो।
गर बेटी हो कर ही गलती की,
तो अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो।।
© डॉ शिवम् मिश्र 'प्रवाह'
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