काफ़ी है मेरे लिए फ़क्र-ए-इल्म-ए-शख्सियत,
दरकार नही अब किसी झूठे नाम-ओ-नुमूद की।
ख़्वाहिश नहीं कोई नुमाइश-ओ-तशहीर की भी,
बुला रही हैं मुझको तो मेरी मंजिल मक़्सूद की।
कि पहना है आज मैंने जेवर-ए-तालीम इस तरह,
फिर क्यूँ ना छलके आंखों से मेरे मस्ती वजूद की।
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