दिन से महीने और महीने से साल बन गए
ज़िन्दगी के अपनी अब, हम खुद ही रखवाले बन गए।
वक़्त ही निकल रहा था घड़ी के कटों पर
और हम एक पल, में ज़िन्दगी जीते चले गए।
मैं हर लम्हा अपने पर खर्च करती रही
और लोग बस, बातें बनाते चले गए।
उसुलो को अपने हाथो से लिखती गई
भेड़चल वाले बस, गुर्रह कर रह गए।
मैं अपनी तकदीर लिख रही थी
और वो लोग बस, अपना उल्लू बनवा कर रह गए।
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