ज़िंदगी की मजार पर बिकता लहू है
हमसे पुछो कि कैसा दिखता लहू है।
हर कदम पे सासों के लोथड़े मिले है
कर के सीना छल्ली चीखता लहू है।
लहू वो जो बगावत की आग में जले,
बाद मोर्चे की शक्ल में ढलता लहू है।
लहू कुछ नही बस सियासती खेल है,
ये खेल जहाँ मिट्टी से मिलता लहू है।
मैं हिन्दू यूं मुसलमान हो जाता हूँ
मज़हबी रंग में जब रंगता लहू है।
है डर बस इंसानियत से ज़माने में,
हर बात पर यहाँ बस बहता लहू है।
क्यों न हो मैं कुरान पढूँ और गीता भी,
क्यों?,नफरत की भेंट चढ़ता लहू है.!
मैं राम,मैं अल्लाह,मैं यीशु,मैं नानक.
फिर मैं कौन?,लाश से कहता लहू है।
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