परसों, कल और आज: देखना फ़िल्म का
(फादर्स डे पर एक संस्मरण)
एक बार दो दिनों तक बेटे से बात नहीं हुई तो रात ग्यारह बजे उसे फोन लगा दिया। पहली ही रिंग में फोन उठाते हुए उसने फुसफुसाते हुए कहा,
'पापा, पिक्चर देख रहा हूँ । घर लौटते रात के एक बजे जाएंगे। कल बात करूंगा।' पूछना चाहा कि कौन सी फ़िल्म है पर तबतक उसने फोन काट दिया।
दूसरे दिन बात हुई। फ़िल्म की कहानी उसने सुनाई। फिर बोला,
'आपको शायद पसन्द न आए। आज के ज़माने की फ़िल्म है।'
मैं सोच में पड़ गया । एक ज़माना था जब बच्चों या युवाओं का फ़िल्म देखने जाना अभिभावकों की नज़र में उनका बिगड़ जाना था फिर युग बदला तो पिता बच्चों को कहते कि अमुक फ़िल्म बच्चों के लिए नहीं, और आज....
आज बच्चे कह रहे कि यह फ़िल्म आपके लायक नहीं।
मैं जब भी बेटे के पास जाता हूँ , वह मुझे नाइट शो फ़िल्म जरूर ले जाता है। कोरोना संकट में हमारा यह जॉइंट venture फ़िलहाल बन्द है।
कल फादर्स डे पर सबसे पहले उसी ने मुझे विश किया। फिर मैं देर तक अपने पिता के बारे में सोचता रहा जिनको अपने पिता पर अगाध श्रद्धा थी। फादर्स डे पर अपने पिता को नमन करते हुए उनके साथ बीती एक घटना लिख रहा हूँ। आप भी पढ़िए...अनुशीर्षक में....
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