सबकी अपनी मंजिल सबके अलग अपने रास्ते,
सबकी अपनी जिम्मेदारियाँ अलग अपने फलसफे,
सबकी अलग है किस्मत सबकी अलग दुश्वारियां,
फिर क्यों कोई जले फिर क्यों एक दूजे से भिड़े।
गर दुसरों को खुशियाँ दे तो ही मानवीयता है,
कर्ण में बंशी की धुन मुखारविंद में गीता है,
भक्तिरस में जो रमे वो ही चरणामृत पीता है,
जिसको मिलें शरण गुरु की वो ही जीवन जीता है।
एकात्म का बोध मिले और मिले ब्रह्मज्ञान,
इंसानियत को जान सके तो बने हम इंसान,
तेरा मेरा क्या करे यह जीवन रैन बसेरा है,
भागवत शरण मिले अगर तो ही यहाँ सवेरा है।
मोह माया के चक्कर में क्यों यह चोला घिस रहा,
जीवनपथ पर विचलित हो नश्वर जगत में घिर रहा,
व्यर्थ खोने पाने के हिसाब में समय तू यहाँ गवां रहा,
तृष्णा अभिलाषा की चाह में प्यासा मन भटका रहा।
भविष्य वर्तमान के फेर में जीवन लक्ष्य भुला रहा,
चक्रव्यूह में खुद फंस दिग्भ्रमित पग बढा रहा,
मृगतृष्णा का जाल बिछा रेत के महल बना रहा,
अगले पल की खबर नही सालों के ख्वाब तू जोड़ रहा।
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