आरज़ू के हर मोती,पिरोए थे जो सुकून और एतेबार से,
टूटकर बिखर गए ऐसे,घरौंदा उजड़ गया हो जैसे किसी शाख़ से।
बिना सोचे जो लबों पर आ जाती थी बाते,
रिश्तों की संजीदगी थी वहां,ठहर कर झांकना था म्यार से।
हकीकतें रूबरू हुई जब,तो काबू रहा न दिल पर,
उदासी आँखों की बयां करती है,ख़ामोशी से गुज़री है किस हाल से।
क्या अपना क्या पराया,मतलब से मिलते है लोग यहां,
सच्चाई की ज़ुबां भी कांप उठती है एक झूठे डरावने ख़्वाब से।
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