ज़िक्र तेरे गुलाब का आया जब भी मेरे होंठ पर,
हर मर्तबा ला छोड़ा तेरे तिल-ए-रूखसार की ओट पर।
जिसे समझता रहा कातिल मै अपनी हसरतों का,
इक वही शख्स मरहम बना मेरी हर एक चोट पर।
क्या हुई खता मुझसे, क्यों है गिला उसे मुझसे?
क्या वो भी है खफा आज मेरी किसी खोट पर?
आज फिर सारे ज़ख्म नासूर बन चुभ रहे है दिल में,
आया नहीं आज वो शख्स बनने मरहम मेरी चोट पर।
शायद सलीका ही नहीं आता मुझे रिश्ते निभाने का,
एक - एक कर जा रहे है सब अपने मुझे छोड़ कर।
जब ज़हेन में ही बैठ गया हो दानव भ्रष्टाचार का,
तो क्या होगा बिठाकर गांधी को किसी और नोट पर।
कुछ हैं जो सियासत में ख़ुद को राजा समझ लेते हैं,
भूल जाते हैं, यहाँ राजा भी बनते हैं रंक इक वोट पर।
औलादें जिन्होंने निकाल दिया अपने मांँ बाप को घर से,
शायद भूल गये, पाला है उन्होंने कई खुशियों का गला घोंटकर।
खाई थी कसमें कभी सच्चाई की हिफाजत करने की,
पड़ गये है दाग कई खून के आज उस काले कोट पर।
इक अलग सी खुशी मिल रही है आज-कल मुझे,
शायद अच्छा ही किया तेरी रुसवाईयों का गला घोंटकर।
मोहब्बत और शोहरत का गुरूर जब चढ़ा मुझ पर,
मेरा वजूद, मेरा जमीर सब कुछ आ गया रोड पर।
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