अंतहीन यह मौन तृष्णा।
इस घोर तम की यातना।।
रात के अन्तिम पहर में।
अतीत का फ़िर जागना।।
आवेग में है ये अमावस।
मन निशाचर बैठा अंदर।।
जैसे नभ में स्थित कोई।
चंद्र-सा एकाकी बनकर।।
वासनाओं का विसर्जन।
काल के सम्मुख समर्पण।।
क्यूँ हो रहे सब रागशून्य।
और मैं क्षीण हर क्षण।।
हैं बुझ गए सारे 'चिराग'।
बुझ गयी इच्छा नितांत।।
बुझ गया अब चन्द्र भी।
अंधकार बस दीप्तमान।।
अंधकार बस दीप्तमान!
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