" सड़क पर अकेली रात भर लड़ती रही निर्भया "
बेबस, बेजान अर्धनग्न पड़ी थी राहों में ,
टकटकी सी लगी थी हर आने जाने वालों पर ,
कोई तो आता इस बेजान जिस्म पर एक चादर डाल जाता ,
देख कर मेरे अधमरे जिस्म को कोई निगाहें फेर लेता ,
तो कोई जी भर देख कर चल देता ,कोई डर से ना आ पाता पास ,
सड़क पर अकेली रात भर लड़ती रही निर्भया !!
तड़पती रही मैं उन राहों पे दर्द की हुंकारों से ,
दिल ना पसीजा उस दहसी हवस के दरिंदों का ,
करती रही गुहार अपने अंतिम क्षण तक ,
पर सूनी ना किसी ने कर दिया मेरे अंगों का चीर हरण,
डाल कर हथियार मेरे अंगों को अंदर से तोड़ा गया ,
सड़क पर अकेली रात भर लड़ती रही निर्भया !!
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