...... जरुरत है कि समझो मुझे......
मैं उड़ चलूं तो तुम भी कहोगे,
पंख फैलाने की जरूरत क्या है?
मैं रखूं गर जमीन पर पैर ,
तो झुकने की इतनी जरूरत क्या है ?
बढ़ने की कोशिश करूं अगर तो,
कमाने की तुम्हें जरूरत क्या है?
डर है तुम्हें इज्जत कि तुम्हारी और एक तरफ कहते हो,
स्त्रियों को कमजोर समझने की जरूरत क्या है?
अहमियत समझी ही नहीं कभी तुमने हमारी,
वरना यूं बात-बात पर चीखने की जरूरत क्या है?
बैठो कभी साथ में बात को समझो तो सही ,
यूं हर बार गलत समझने की जरूरत क्या है ?
समझो कभी मेरी बात को भी सही ,
यूं हर बात पर हक जमाने की जरूरत क्या है?
चलो छोड़ो इस बात को यहीं ,
अब और तकलीफ देने की जरूरत क्या है?
सुनो खुश रहो तुम अपनी जिंदगी में ,
अब मेरे तुम्हारे साथ रहने की जरूरत क्या है?
अलविदा कर रही हूं मुसाफिर समझकर,
बस अब साथ चलने की जरूरत नहीं है।
-