अपनी ताबीज़ में कुछ मंतर तो, फूका हैं आपने।
यूं ही नहीं वो, जन्नती सी लगने लगी।
अपनी ताबीज़ में कुछ बूंदें तो, अदाएं की झलकती।
यूं ही नहीं वो, इतराई सी लगने लगी।
आपकी ताबीज़ में कुछ अलग ही, चमक फैलती।
यूं नहीं वो, तुमसे गले लगने लगी।
अपनी ताबीज़ में कुछ तो, अपना रंग मिलाया।
यूं ही नहीं वो, सुनहरा सी लगने लगी।
आपकी ताबीज़ में शायद, अलग नगीना जड़वाया।
यूं ही नहीं, आप से नज़र नहीं हटती।— % &
-