बस इस कदर मोहब्बत का वो नज़ारा था,
मानो जैसे मौत ने ज़िन्दगी को पुकारा था,
पतझड़ की वो आँधी जो आई थी बेआबरू करने,
उस पेड़ को, उसकी हर एक शाख को,
रुस्वाई के आलम में खुद बिखर भी,
आगोश में ले लिया था सुलगती उस ज़मीन को,
और यूँ आगाज़ हुआ उस दौर का,
जहाँ फ़ना होती सक्षियत भी,
ख़ामोशी की वो रुत ले आई,
जहाँ ज़र्रा ज़र्रा भी बयान कर रहा था-
"की मोहब्बत वो नहीं जो रस्मे-रफ़ाक़त की मोहताज हो, "
जो इस जहान में नसीब ना हुआ,
वो उस जहान में होगा ज़रूर,
हक़ीक़त जो नज़र आती है वो होती नहीं,
इंसानी सोच के दायरे में नहीं समा सकती,
ये पाक अमर मोहब्बत की दास्तान,
ये तो परवरदिगार का नायाब तोहफा है,
हस्ती मिटती नहीं कभी उनकी जो तबाह होने से डरते नहीं|
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