सुबह शाम आईने में देखती हूं जो
हाँ वो अक़्स तेरा ही है, हो न हो
ये अक़्स भी ग़र तेरा हुआ..
फिर मुझमें मेरा बचा क्या है?
चलता है सिलसिला जिनका रोज़ अक़्सर
वो यादें भी तुझमें ही करती है बसर
ये यादें भी ग़र तेरी हुई..
फिर मुझमें मेरा बचा क्या है?
जो दिन रात तुझे ही सोचता है जान
ये दिल भी अब होने लगा मुझसे बेईमान
ये दिल भी ग़र तेरा हुआ..
फिर मुझमें मेरा बचा क्या है?
ये मानती कहां है मजबूर हो गयी
बेबस धड़कने भी तेरे नाम हो गयी
ये धड़कनें गर तेरी हुई...
फिर मुझमें मेरा बचा क्या है?
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