कहाँ किसी से घुलती मिलती हूं अब ,
न जाने कितने दिनों से मौन हूँ मैं.....
लोगो को जानने की फुर्सत नहीं है अब,
खुद को ही न जानूँ कौन हूँ मैं..?
शायद समुद्र से लगता कोई किनारा हूं मैं....
या फिर अनजान शहर का कोई गलियारा हूं मैं.....
शायद मंजिल को ढूँढती कोई राहगीर हूं मैं...
या फ़िर रांझे से बिछ्ड़ी कोई हीर हूं मैं....
या फिर दुनिया की बातों को दिल पे लेती एक कमबख्त हूं मैं......
फूल सी कोमल या लोहे सी सख्त हूं मैं.....
शायद पराया कह के जिसको भावुक कर दिया जाता है , वो धन हूं मैं.....
हर किसी ने महसूस किया होगा , वो अकेलापन हूं मैं,
शायद अंनत गहराई वाला कोई दरिया हूं मैं...
खुद से खुद तक पहुचने का बस एक ज़रिया हूँ मैं....!
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