हमने इक दिखावटी जहां
में इक ख्वाहिश के पैरहन
को इक दीन को दे दिया
तो क्या,हमने कुफ़्र की बात की...
हथकरघा का स्वावलंबन अब कहां
जो चंद ज़र से ही काम चलाते,
खरीद लिया मंहगाई में
ताना-बाना का अर्ध ज्ञान भी न
उमरिया की चोली अर्ध सिली छोड़ दी....
कभी सोकर देखते खुले आसमां में भी,
एक आह की गगरी से लेते उधार,
प्यास में कभी आँसू की ही आब-ए-हयात पी ली.....
गाम घाम में भी चलते रहते हैं हम,
चंद नफस हमने जिंदगी से उधार ले ली,
चंद घड़ियों में क़लम से नज़्म लिखकर
दाम चुका देगें हाँ ऐसी ही कसम ले ली!!
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