समझदार से नासमझ ही अच्छे थे
जिंदगी तो तब थी जब हम बच्चे थे...
ठुकाई तो होती थी पर घर वाले लाड से दुलाराते भी थे
पहले मार कर रुलाते फिर झूले में झुलाते भी थे,
न exams की tension थी न result का डर था
जहाँ नींद आये सो जाओ वही हमारा घर था...
बड़े हुए घरवालों की सोच, society की सोच का ध्यान रखना जरूरी है
काश! बस एक बार और लौट आता बचपन फिर हर एक आश पूरी है...
जब बच्चे थे तब सोचते थे समझदार क्यों नहीं हैं हम?
समझदारी आई तो मिला ही क्या? मिले हैं तो वो हैं सिर्फ गम...
जैसे तैसे कपड़े पहन माँ के हाथों से कंघी करवाकर क्या सादगी हुआ करती थी,
समझदार हुए तो पता चला नासमझी में ही गजब की ज़िंदगी हुआ करती थी...
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