तन्हाई थी चारों तरफ़ पर कुछ शोर हो रहा था
दिल और दिमाग़ का झगड़ा, पुर-ज़ोर हो रहा था
मैं तो ख़ुद को उस से आज़ाद ही कर आया था
पर कुछ ना कुछ मेरे अंदर, घंगोर हो रहा था
जिस बदगुमानी से मैं, कतरा रहा था अब तक
वो धीमे धीमे दिल का, मेरे चोर हो रहा था
बेचैन दिल के दर पर, दस्तक हुई किसी की
उस को ही सोच नादाँ दिल मोर हो रहा था
दिन के किसी पहर में, अख़्तर कहीं मगन था
शब-ए-वस्ल सोच चंदा, चकोर हो रहा था
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