मिलों पैदल चल रहा वो इंसान,
मज़दूर नही वो मजबूर है,
बंजारे सा भटक रहा है जो,
ना सूरज की गर्मी जला रही,
ना पैरों के छाले रोक सके उसको,
बस चल रहा वो दिनों दिन,
अपने गांव की तलाश में,
आतुर है वो कितने दिनों से,
मंज़िल पाने को आस मे,
रे खुद को इंसान कहने वाले,
देख तो एकबार उसके छाले को,
खुद को खुदा समझने वाले,
आशियाना तेरा उसकी मेहनत है ।
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