प्रेम !! समर्पण माँगता है, स्वार्थ नहीं,
प्रेम !! त्याग माँगता है, आकांक्षा नहीं।
समर्पित यूँ होना कि सिर्फ़ त्याग शेष रहे,
और स्वार्थ बस इतना की प्रेम शेष रहे।
हो इच्छाएँ जो उसी समपर्ण में विलीन हो जाएं,
और आकांक्षा ये कि उसी प्रेम में लीन हो जाएं।
यदि प्रेम की पहली सतह भरोसे से पूर्ण होती है,
फिर सतह के बीच विश्वास स्वतः ही पनपता है।
हर सतह पर गहराई बढ़ती रहे किंतु भय नहीं,
भय मुक्त होना ही तो प्रेम में बंधना होता है।
यह बंधन हो कर भी सर्वाधिक मुक्त तभी होगा,
जब इसमें थोड़ा भी भय व मोह शेष ना होगा।
कठिन परिस्थितियों में जो अटल रहे वही प्रेम है,
जो हर दबाव के बीच भी अडिग रहे वही प्रेम है।
प्रेम त्याग से शुरू होता है और स्वार्थ पर अंत,
समर्पण इसका शिखर भी है और अंतिम सतह भी।
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