ऐ मर्द तूँ केवल एक बार, औरत बनकर तो देख
कैसे जीवन जीती हूँ, अच्छी तरह समझ जाएगा
एक नारी होने के नाते, मैं जितने सहती आई हूँ
हवस भरे उतने अंगारे, तूँ झेल कभी ना पाएगा
तुम मर्द ही बनाते हो, औरत को अपना शिकार
वैश्या बनाकर करते हो, मेरे ही तन का व्यापार
वस्त्रहीन करते हो मुझे, वहशी नजरों के तीरों से
मुझको ही तुम बांधते हो, वासना की जंजीरों से
मेरे जिस्म का कपड़ा, फाड़कर खुश हो जाते हो
कभी ना भर सके ऐसा, घाव मुझे देकर जाते हो
दरकती है ज़िन्दगी जब, लगती अस्मत पर चोट
कह उठता सारा जमाना, मुझ औरत में ही खोट
झूठा भोजन समझकर, मुझे कोई नहीं अपनाता
बता ऐ मर्द क्या तूँ इतनी, पीड़ा सहन कर पाता
कुछ दम रखता है ए मर्द, तो करके ये दिखला दे
मेरी लुटी हुई इज्जत को, तूँ लौटाकर दिखला दे
_Unknown____
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