ऊलझ रही हूं, सुलझ रही हूं...
मन ही मन ख़ुद से जूझ रही हूं।।
नन्ही सी मुस्कान खो गई,
जग मे उसको ढूंढ रही हूं।
भुल गइ सब कहना-सुनना,
रोना-हंसना, हंसना-रोना।
समझ चुकी हूं गर्दिश ज़माने की,
आसमान से टूटती ख्वाहिशों की।
टूट रही हूं, बिखर रही हूं,
पल-पल दर्द से गुज़र रही हूं।
चाहत है फिर उठ खड़े हो जाने की,
कतरा-कतरा खुद को पाने की।
सिमट रही हूं, संभल रही हूं
धीरे-धीरे सुलझ रही हूं।
ऊलझ रही हूं, सुलझ रही हूं...
मन ही मन ख़ुद से जूझ रही हूं।।
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