अजीब है जिसने कभी प्रेम किया नहीं
उसने श्रृंगार रस पर भर भर लिखा
जिसने कभी अन्याय पर आवाज़ उठाई नहीं
उसने वीर रस पे अपनी कलम चलाई
रोज़ सबेरे शाम अंधेरे जो धंधा पानी चला
उस पर चुप रहकर मौन सहमति जताई
इस विडम्बना को क्या कहूँ कि
अब शब्दों की छेड़छाड़ ही कविता कहलाती है
मग़र विचारों की शून्यता किसी को ना खलती है
आँखों देखा, जिया हुआ सच झूठा मालूम होता है
जब कोई मिथक रचने वाले को कवि कहता है....
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