"मैं क्या हूँ कैसा हूँ, कोई नहीं बस मैं जानता हूँ, जिस्मी लिहाफ़ में रूह का, मिज़ाज जानता हूँ नहीं कहता मैं, कि बाँटो मेरे दर्द को तुम मुझसे लिख के कम कर लेता हूँ इसे बस ये जानता हूँ"
"सुबह भी क्यों अब मुझे रात सी लगने लगी, वो तन्हाई तीसरे पहर की दिन में बढ़ने लगी हर दर्द तकलीफ़ अपने चरम पर पहुँचती है अब तो सुबह भी न जाने क्यों खलने लगी वो उगता सूरज भी न दे पा रहा हिम्मत मुझे ये बहती हवा भी मुझे अब बहुत चुभने लगी न ज़िक्र किसी का न यादें याद करता हूँ मैं बस आने वाली घड़ी की फ़िक्र मुझे होने लगी न पैरों में बेड़ियाँ न ही रोका है किसी ने मुझे ठहरा हूँ वहीं जहाँ से ज़िंदगी मुझे ढोने लगी"