फ़क़त अनाज पेट में, एक मुट्ठी चाहता हूं
मौत लाज़मी है, तो अपनी मिट्टी चाहता हूं,
यह शहर की रौशनी अमीरों को मुबारक हो
अब मैं अपना गांव, अपनी बस्ती चाहता हूं,
उम्मीद नहीं मुझे कोई, दुनिया के तैराको से
हौसले के भंवर में ख़ुद की कश्ती चाहता हूं,
देखना अंधेरा ख़ुद ले कर आएगा मेरा दिया
सर नंगा सही दिये के लिए पगड़ी चाहता हूं,
सड़क रौंदती है मुझे, ख़फ़ा है रेल भी मुझसे
पैदल चल लूंगा पर मैं अपनी पटरी चाहता हूं,
मैंने सुना है दिल्ली से लफ्ज़ राहत निकला है
गर हुआ है कुछ ऐलान तो मैं जल्दी चाहता हूं,
सब जुमलों से भरा काग़ज़ का टुकड़ा ना हो
असल ये ज़मीं पर उतरे, मैं असली चाहता हूं !!
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