दफन कई ख्वाब बेचने निकला था सदर ऐ बाजार मैं,
सहमा हुआ सा जहां नजर घुमाई मुफ्त के ढेर लगे थे।
टूटे बिखरे रात-दिन के अश्क आशिक बेवफाओं के ख्वाब ले लो,
भरे गले सूजी आंखों से बखूबी ऐसी आवाजें जोरों से लग रही थी।
और मैं ख्वाब अपने बेच ना सका पोटलिया उनकी देखकर,
सोदा ऐसा के दो चार और खरीद लाया ढेर अपना बड़ा कर।
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