कोई ख़ातिर ज़िन्दगी की दुआ सुबह-शाम करते हैं,
इसी ऐजियत ज़िन्दगी को हम क़त्ल-ए-आम करते हैं।
ग़ुज़र नहीं सकता जब दो पल ख़ुशी की,
फिर इस ज़िन्दगी की क्यों सब गुमान करते हैं।
हर तरफ चर्चा है बाज़ारों में खुशफहमी की ,
होकर मशहूर फिर इसको ही बदनाम करते हैं।
हर रोज़ तो अदालत का चक्कर काट नहीं सकते,
बेवज़ह भीड़ में ख़ुद का नुक़सान करते हैं।
इंसाफ की तलब में कटघरे में खड़े हैं जो
अदालत उसी से ही कागज़ी फ़रमान करते हैं।
मानों उस भीड़ में वक़ार की कोई अहमियत नहीं,
वो हैं कि ख़ातिर इज़्ज़त की कोशिश तमाम करते हैं।
कानून अँधा है और अदालत भी है बहरी,
खा-म-खा अहमियत देकर सब उसकी पेहचान करते हैं
Shabana khatoon
-