जो हंस के चली गई थी, मेरे मोहब्बत के सब्र पर,
कल रात देखा उसे , मैंने अपने ही क़ब्र पर ।
उसकी नम आंखें दे रही थी दुहाई,
मेरे पुराने कस्मो वादों की,
एक एक कर खोल रही थी परतें,
बीते कल के यादों की।
वो कर रही थी बातें ,
उन सर्द भारी रातों की,
वो ले रही थी इंतेहा,
मेरे खोखले जज्बातों की ,
अब मुझे दिखने लगा था, उसके नम आंखों सरूर
कली रात के ऊपर, छाय उस काले अब्र पर।
तब मेरी भी आंखें नम थी, पर लब मुस्कुराते रहें,
उसके इस "हश्र" पर ।
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