रात सी होती जा रही है ज़िंदगी...
गहरी, अंधेरी, काली, तनहा और थोड़ी खूबसूरत भी...
पर अब डर लग रहा है इस अंधेरे से...
लगता है जैसे यह बढ़ता ही जा रहा है, धीरे धीरे समेटता जा रहा है, निगल रहा है मुझे...
क्या तुम मुझे इससे निकाल नहीं सकती?
मुझे बचा नहीं सकती?
चाँद ना सही, पर क्या मेरी जुगनू भी नहीं बन सकती?
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