दरिया में बहती मेरी कश्ती को अब,
किनारे पर जाने की तलब सताए जा रही थीं।
पहुंच तो जाती थी मंज़िल पर हर बार,
पता नहीं क्यों इस बार ये भटकती जा रही थीं।
मुश्किलों का तूफ़ान बहुत तेज़ था इस बार,
पर हार कैसे मान लेता मै।
क्योंकि मेरी रूह हर बार की तरह,
जीतने के लिए मुझे झकझोरती जा रही थीं।।।
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