एक छोटी सी गुड़ियाँ
देखती है एकटक लगाये
बस्ता लिये, जाते बच्चों को,
मन में असंख्य उम्मीदों की छ्लांग लिये,
मुस्कुराती है, माँ के संग जाते हुए,
माँ के संग ही ख्वाब संजो लेती है,
पर वो ख्वाब, शायद ख्वाब ही रहते है,
गलती नही होती है, उस बचपन की,
उम्र होती है, सपनों के पंखो से,उन्मुक्त मन की
जो ढल जाती है, मैला ढोने और कूड़ा उठाने में,
बचपन जीना चाहती है, स्वतंत्र सी
पर साक्षरता के अभाव में, बन जाती है, परतंत्र सी,
ख्वाब तो ख्वाब होते है, चाहे राजकुमारी देंखे,
या मैला ढोने वाली गुड़िया देखे,
चंद सरकारी कर्मचारियों की लापरवाही,
ताउम्र मजबूर कर देती है, गरीबों को
गरीबी में जीने, और गरीबी में ही मर जाने को।
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