नफ़रतों की ख़ुराक चढ़ा, मैं मोहब्बत लिखती आई हूँ,
वाह-वाही लूटते झूठे तंज कस, मैं दो पंक्तियों में उसे निलाम करती आई हूँ..
कलम की ले आड़, सुबह -शाम मैं दर्द परोसती आई हूँ,
खुदगर्ज़ी का नक़ाब ओढ़, मैं उसे ख़ुद से दूर करती आई हूँ..
सच को सबकुछ जान, मैं कई खुशियों से मुँह फेरती आई हूँ,
हर पल को बिगाड़,मैं उसे सजा देती आई हूँ,
झूठ को अब पहचान, मैं हर वक़्त घुटन में जीती आई हूँ,
बातों का बतंगड़ बना, मैं उसे झुझते जवाबों में छोड़ कर आई हूँ..
इख़्तियार से हाथ धो, मैं लम्हों को आँसुओ में बहाकर आई हूँ,
कल का डर जता, मैं उसे फैसलों की चौखट पर रोककर आई हूँ..
मय के जाम छोड़, मैं हक़ीकत लिखने का ढोंग करती आई हूँ,
हक से ना सही, मैं उसे हर लफ़्ज़ में समाती आई हूँ..
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