प्यार की गुब्बार कुछ नवरंग में भरी सी थी,
लालहाते खेत जैसे बसंती हरी सी थी,
शाख सा मजबूत हो गया था इश्क़-ए-आइना,
शादमानी सोहबत सिर ताज जौहरी सी थी,
धुंधला हर रंग हो गया अब सबकुछ खो गया है।
जान कहता था मुझे जो, जाने किसका हो गया है।।
याद है अब भी मुझे वो रात जब हम रो रहे थे
एक-दूजे के सहारे बन सजर मन सो रहे थे
ख़ुशनुमा फिर हो गई थी रात की रंगीनियां
ख्वाहिशों के बीज चुन अहले जमीं में बो रहे थे
भा गया उसको कोई या और कुछ, ना जाने क्या है।
जान कहता था मुझे जो, जाने किसका हो गया है।।
धुंधला हर रंग हो गया अब सबकुछ खो गया है।
जान कहता था मुझे जो, जाने किसका हो गया है।।
_Dastan-e-akhil_
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